प्राकृतिक संपदा से संपन्न धरती, उस
पर फैले हरे-भरे खेत, नदी का कगार, आसमान में घुमड़ते बादल, खेतों
में गीतगाते किसान, कुहरे की चादर में लिपटी उषा, गोधूली
से ढकी संध्या, पनघट से हंसी-ठिठोली करती आती ग्राम वधुएँ, कुछ
कच्चे-पक्के घर, उनसे निकला धुँआ, चौपाल
पर बतियाते वृद्धजन, अधनंगे खेलते बच्चे-यही है एक आम भारतीय गाँव का दृश्य ।
खेती को सभी व्यवसायों में श्रेष्ट माना गया है, क्योकि
इस व्यवसाय में स्वावलंबन हैं, परिश्रम है, सृजन है | एक
समय था, जब भारत का किसान शुखी था | दुध-दही की नदिया बहती थीं | उसके पास अन्न का बन्दर था, स्वच्छ
वायु और पौष्टिक भोजन प्राप्त करने वाले हमारे ग्रामीण-जन एक खुशहाल जीवन जीते थे | समय ने करवट ली और सबसे बड़ी गाज गिरी गाँवों पर | गाँवों की बगल में नगर उठ खड़े हुए | बिजली की चमक में दीपक की लौ टिमटिमाने लगी | बढती जनसँख्या का बोझ धरती माँ के लिए सहना कठिन हो गया | संयुक्त परिवार टुकड़े-टुकड़े हो गये और प्रत्येक परिवार के कुछ
सदस्यों को गाँव छोरकर शहर की तरफ रुख करना ही पड़ा | सही कहा गया है - 'भूखे भजन न होई गोपाला' | गाँवों
की पहाड़ जैसी समस्यायों को समझने या उनका समाधान करने के प्रत्यन राई बराबर भी नहीं
किए गए |
आज स्थिति विचित्र है । नगर आगे है, गाँव
पीछे । नगर सब गतिविधियों के केंद्र हैं । वहाँ शिक्षण-केंद्र हैं, बड़े-बड़े
बाजार हैं, सांस्कृतिक केंद्र हैं, मनोरंजन
के साधनों की भरमार है । दूसरे और गाँवों में अगर पाठशाला भी है तो अध्यापक नहीं हैं । अध्यापक हैं तो पढ़ने वाले
नहीं है, और दोनों हो तो पाठशाला नहीं है
पढ़ने को । पढ़ने वाले बच्चों है तो उन्हें मजबूरन खेतों में काम करना होता है । न सड़क है, न पानी-सिचाई की व्यवस्था, न अस्पताल और न ही कोई ठोस भावी योजनाएँ हैं। और जो अन्न पैदा करता
है, उसको ही भूखा रहना पड़ता है। जिसके
खेतों में कपास पैदा होती हैं, उसके ही तन
में वस्त्र नही होते है। आज वह कडकडाती सरदी, चिलचिलाती धुप और वर्षा के थपेड़े सहकर अपने कृषि-कर्म में जुटा हुआ
है।
आदुनिकता की दौर में भारतीय गाँव बहुत पीछे छुट गएहैं।
वहाँ का समाज आज भी अंधविश्वासों, सड़ी-गली रुढियों की बेड़ियों से जाकड़ है। जाती-पाती के हीन विचारों से
ग्रस्त है। बीमार होने पर आज भी ओझा, पीर-पंडितो का ही आश्रय लिया जात है। झाड़-फूंक, गंडे-ताबीज में उसका विस्वास हमारी शिक्षा व्यवस्था पर करारा
चाँटा है। हम उन्हें शिक्षित कर समझदार नहीं बन सकते हैं।
आज के भारतीय गाँव तो एक और नए संस्करण से जूझ रहे हैं। शहरों में तेज़ीसे होती विकास और भौतिक वस्तुयों की बाढ़ ने गाँवो को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। गाँव के युवा शहरों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। संयुक्त परिवारों की सदियों से चली आ रही व्यवस्था टूट रही है। गाँव के प्रेम और सौहार्द पर हमें अभिमान रहा हैं। किन्तु वह आज भी अकेलापन और तनाव बढ़ रहा है। जो युवा गाँव में है, वे भी भटक रहे हैं। कुटीर-धंधे ठप्प हो चूका हैं। बाढ़ और सूखे ने खेती को एक अनिश्चितव्यवसाय बना दिया है। दूसरों को जीवन दान देने वाले किसान आत्म-हत्या करने पर मजबूर है। अशिक्षा, अज्ञान, गरीबी ने नक्शाल्वादियों को पाँव ज़माने का अवसर प्रदान कर दिया है।
हर वर्ष के बजट और पंचवर्षीय योजनाओं में गाँवो के विकास के लिए योजनाएँ बनती है। पर अधिकांश फाइलों में दबी रह जाती हैं। जो थोड़ा-बहुत विकास हो रहा है वो, वह अपर्याप्त है। एसें में स्वयंसेवी संथाओं को आगे आना होगा। बहुत-से शिक्षित नवयुवक पूर्ण समपर्ण भाव से गाँवों को उन्नत बनाने में जुट रहें हैं। बहुत करना शेष है और तभी संभव होगा, जब हम सब इस कार्य में सहयोग देंगे। जिन गाँवों में हमारे देश की सत्तर प्रतिशत जनता रहती है, उसके के बिना हमारा विकास अधुरा है और निर्थक भी। गांधी के 'स्वराज्य' में गाँव देश के केंद्र में था। हमें पुनः उसे केंद्र में रखकर विकास योजनाएँ बनानी होंगी, तब ही हम पुरे विश्वास से कह सकेंगे --"मेरा भारत महान"-- ।
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